नई कविता का स्वाद ‘उल्का’में है

Nayi Kavita जैसा उल्का में क्या है पढ़िए एक विश्लेषण। क्या उल्का सच में कुछ अलग है?

उल्का हाल ही में प्रकाशित हुई है जिसमे नई कविताका स्वाद है। जिस तरह से इस किताब की शुरुआत होती है; लगता है यह कोई भुतही कहानी है। पाठक हैरान रह जाता है जब उसे पता चलता है कि यह एक कविता संग्रह है। सीधी बात, अगर आप ने इसे नहीं पढ़ा तो एक बेहतरीन किताब को छोड़ दिया।

किताब के बारे लेखक का कहना है ‘यह कोई कविता संग्रह नही, उन भटकते शब्दों का अपना ग्रह है।’

पढ़ते हुए यह अनुभूति कहीं-न-कहीं पाठक के मन में रहती है कि क्या वास्तव में शब्द ऐसी कथा कह सकते हैं। शब्दों पर भरोसा हर कवि को होता है तभी तो वह सृजन का पीड़ादायक समय भी हँसते-हँसते सह जाता है। इसी भरोसे पर कवि इतना बड़ी बात कह गया है। एक झलक कुछ पंक्तियों की यह बताती है।

वीर सिपाही की कथा कहते हुए:

डर मरने से नहीं लगता है
डर लगता है जब मरना निरर्थक हो

शासन में व्याप्त संस्कृति का सच:

सड़क के गड्ढे और
गाड़ी की कीमत का अन्तर
भ्रष्टाचार का पैमाना है

कुशासन की सोच:

अपने व्यवसाय की गरिमा के लिए
मैनें अपनी अक्ल घुटनों में रखी है
और लाठी हाथ मे
तुम भेंड़ हो
मैं चरवाहा हूँ

आज भी लोग दुनिया में भूखे हैं:

आँत की ऐंठन शोर नहीं करती
पर मार दूर तक करती है

nayi kavita

जीवन का सच :

नर्तकी को नोंचती आँखें
आँत की ऐंठन पर
नागिन का नाच नाचती नर्तकी
हताशा से क्षुब्घ ढोलकिया
जीवन की खाल पीटता बेबस

लोगों की मानसिकता का कुछ ऐसा वर्णन:

हँसना पिछड़ेपन की निशानी है

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