murkh pradhanmantri
“मूर्ख बोल कर सोचते हैं, और ज्ञानी सोच कर बोलते हैं।”
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चुनावी जंग चल रही है, जिसे देखो अपने खाते में ज्यादा से ज्यादा वोट समेटने की फ़िराक़ में लगा हुआ है। रैलियां हो रही हैं, भाषण दिए जा रहे हैं, बयान दिए जा रहे हैं, किसी को देशद्रोही तो किसी को चोर बोला जा रहा है। किसी कि भावनाएं आहत होती हैं, तो कोई कोर्ट जा रहा है। कोई अपने बयान को लेकर माफ़ी मांग लेता है, कोई अकड़ में ही रहता है।
मुझे इन परिस्थियों में भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की याद आती है। उनके भाषणों को सुनना एक यादगार अनुभव था। बहुत सरे कार्टून और चुटकुले उन पर बने थे, जो उनकी बोलने के तरीक़े से जुड़े हैं। ऐसा तक कहा गया कि वो बोलते-बोलते बीच में ही सो जाते थे … और सच में इस तरह से वो एक-एक बात तौल कर बोलते थे कि कुछ-कुछ ऐसा ही माहौल बन जाता था। और बात केवल बोलने की होती तो बात होती, सुनने वाला भी सोचने पर विवश हो जाता था। प्रयागराज की एक रैली में उन्होंने ने एक बात कही थी – “कांग्रेस अब सिकुड़ रही है और एक दिन ऐसा आएगा कि माइक्रोस्कोप से ढूढ़ना पड़ेगा।” पूरे मैदान में हास्य के पुट के साथ तालियां गूँज गयीं। इस बात में गहराई थी और हास्य भी। जिन्होंने सुनने का सुअवसर खो दिया वे इंटरनेट का सहारा ले सकते है.… आज जब हम किसी को बोलते हुए सुनते हैं तो ऐसा लगता है कि कान फोड़ लें।
एक भड़ास है दिलों में जो निकलनी है, चाहे जैसे भी कहो, कुछ भी कहो; अपशब्द कहो, लांछन लगाओ क्या फ़र्क पड़ता है… यही सोच हावी होती जा रही है। मानसिक दिवालियेपन के ऐसे-ऐसे उदहारण देखने को मिलते हैं कि कह नहीं सकते। यह दिवालियापन केवल भाषणों में नहीं है, दरअसल यह प्रतिबिम्ब है हमारे नेताओं की वास्तविक मानसिक स्थिति का, उनकी सोच का और भारत के उस अंधकारमय भविष्य का जो इस सोच के साथ और अंधकारमय होता जा रहा है। पहले बोल दिया और फिर उसकी लीपा-पोती में लग गए; पहले निर्णय ले लिया और फिर उसकी ग़लतियों को छुपाने में लग गए।
काश! अब भी बोलने से पहले सोचने की अदात हमारे नेताओं में पड़ जाए!
श्वेत वामन तीखी अभिव्यक्ति के लिए जाने जाते हैं। यद्यपि कड़वाहट उसके मूल में नहीं होता।