Bhains badi ki Akal: भैंस बड़ी की अक्ल? आज तक तो यही मुहावरा प्रचलित था — अक्ल बड़ी या भैंस। मतलब की अक्ल बड़ी है और भैंस जो बल का प्रतीक है वह छोटी है। पर समय के साथ यह मुहावरा बदलता दिखाई दे रहा है।
बुजुर्ग कहते थे की लाठी बड़े काम की चीज़ है। हर जगह काम आती है। वहीँ एक ऐसा भी तबका था जिसका मानना था कि लाठी वो रखता है जिसकी बुद्धि घुटने में हो; कि वह तर्क और बुध्दि से तो क्या काम लेगा, लड़ेगा ही, और लड़ाई में तो लाठी ही काम आएगी। उनका मानना था की अक्ल बड़ी होती है न कि भैंस। पर समय बदला, भैंस को भी निक्कर पहना दिया गया और वो अक्ल से बड़ी हो गयी। जब से राजनीति में मुद्दे के तौर पर एक हथियार के रूप में जानवरों का प्रयोग शुरू हुआ है, गाय ने बाज़ी मर ली, और भैंस बेचारी ही रह गयी थी। पर अब भैंस के दिन भी लौटे हैं। वो भी अब हर जगह सम्मानित की जायेगी क्योकि निक्कर पहन कर वो अब अक्ल से बड़ी हो गयी है। राजनेताओं को पहले से ही पता है कि चुनाव अक्ल नहीं बल्कि भैंस के बल पर जीता जाता है, सो उन्होंने इसे ही आराध्य मान लिया है।
अक्ल की बात करना भी कितनी बे-अक्ली है। पहली बात तो ये की वोट बैंक रूपी देश की अधिकांश जनता पढ़ी-लिखी नहीं है और जो है भी वो कितना अर्थशास्त्र समझती है? न के बराबर। तो अक्ल काम आने से रही। अगर अक्ल की बात करने निकले तो प्रथम तो उसे समझने वाले चाहिए दूसरा वो इतने सवाल पूछेगें की आप को दुम दबा कर भागने में ही खैर नज़र आएगी। भैंस जरूर सबको समझ आती है, और कितना आसान है की भैंस को किसी भी तरह घुमा के मुद्दा बना दिया जाये जिसपर चुनाव आसानी से जीता जा सकता है। भैंस के मुद्दे पर आदमी बात सीधे दिल पर लेता है और बुद्धि को ताक पर रख देता है। एक लहर आती है और आप विजयी! अब भी जिनको शक है की अक्ल और भैंस में बड़ा कौन है तो उनका इस लोकतंत्र में तो कुछ नहीं हो सकता। वो कोई और ग्रह देखें।
श्वेत वामन तीखी अभिव्यक्ति के लिए जाने जाते हैं। यद्यपि कड़वाहट उसके मूल में नहीं होता।