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श्राद्ध पक्ष : ढकोशला, विज्ञान और श्रद्धा

Shradh Paksh : क्या हम तर्कांध होते जा रहे हैं? श्राद्ध पक्ष पर पढ़िए एक बेहद दिलचस्प, तार्किक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण। अंधविश्वास, विज्ञान और तर्क में फंस कर हम अक्सर आधे-अधूरे ज्ञान को ही सब कुछ मान बैठते हैं।

शाहजहाँ के बेटे ने उसे बंदी बना कर एक छोटी सी काल-कोठरी में कैद कर रखा था। उस छोटी सी काल-कोठरी में एक छोटी सी खिड़की थी जहाँ से वह ताजमहल को देखा करता। दाने-दाने को तरसता। एक-एक बूँद पानी के लिए तड़पता। शाहजहाँ अपने बेटे को कहता था: तू कैसा काफ़िर है कि अपने जिन्दा बाप को पानी के लिए तड़पा रहा है। तुझसे अच्छे तो हिन्दू हैं जो अपने मरे हुए पितरों को पानी देते हैं।

श्राद्ध पक्ष : ढकोशला?

श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष शुरू हो चुका है। हर हिन्दू जिसके माता-पिता दिवंगत हो चुके हैं, श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों को पानी देता है। पानी तो यहीं रह जाता है। पितरों तक पहुँचता ही नहीं। भौतिक विज्ञान तो यही कहता है। प्रथम दृष्टया यह एक अंधविश्वास ही लगता है। किसी भी परम्परा को ढकोसला या अंधविश्वास कह देना चालू फैशन है। पर जैसा की हर फैशन में होता है। यहाँ भी बुद्धि नदारद ही दिखाई देती है।

वैज्ञानिक रूप से हम भले ही इस परम्परा का खंडन कर देते हों पर श्रद्धा का खंडन नहीं किया जा सकता। यह कह देने भर से कि यह पाखंड है काम नहीं चलता। शाहजहाँ की कहानी का जिक्र ऊपर हमने किया है। यह कथा सत्य है। इसके प्रमाण न भी हों की यह कहानी सही है, तो भी इसका महत्व कम नहीं होता। जिस उद्देश्य से कहानी का वर्णन हुआ है उसे वह पूरा करती है। यहाँ बात अपने पूर्वजों के सम्मान की है। जिस सन्दर्भ में यह बात कही गयी है वह ध्यान देने योग्य है। पानी पितरों तक भले न पहुँचे, सम्मान पहुँच जाता है। जो लोग अपने शवों को दफनाते है वो भी उनकी कब्र पर जाते हैं। यह सम्मान और प्रेम की ही तो बात है।

श्राद्ध पक्ष : श्रद्धा?

कई बार लोग किसी आपदा में अपने किसी प्रियजन को खो देते हैं। केदारनाथ जैसी भयानक आपदा में कितने ही लोगों के शव नहीं मिले। वे लोग अपने प्रियजन का अंतिम संस्कार नहीं कर पाए। जिनके शव मिल गए उनके अपनों ने उनका अंतिम संस्कार किया। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि जो लोग अंतिम संस्कार नहीं कर पाते, वे कभी भी यह भरोसा नहीं कर पते कि उनके अपने अब उनके बीच नहीं रहे। अंतिम विदाई देकर लोग एक आत्मसंतोष का अनुभव करते हैं। यह अंतिम भौतिक विदाई उन्हें भरोसा दिलाती है कि जीवन चक्र पूरा हो गया। जीवन में अपनों की कमी तो रहती है, परन्तु वे लोग यह स्वीकार कर पाते हैं कि अब साथ छूट चूका है। जबकि अंतिम संस्कार नहीं कर पाने वाले इस बात को स्वीकार ही नहीं कर पाते हैं। उनके जीवन में कमी नहीं एक निर्वात रहता है जो हमेशा एक तूफ़ान खड़ा किये रहता है। हर पल उनको यह लगता है की अभी अचानक वो अपना कहीं से आ जायेगा। कभी दरवाजे पर आहट होती है और उनका मन कहता है ‘कहीं ये वो तो नहीं…’

जो लोग केदारनाथ हादसे में विलुप्त हो गए उनका शरीर भी उसी मिटटी में मिल गया जिसमे जलने वालो का मिला। लेकिन दोनों ही परिस्थतियों का प्रभाव उनके स्वजनों पर एक जैसा नहीं पड़ता है।

श्राद्ध पक्ष : विज्ञान?

मानव मष्तिस्क के दो भाग हैं। एक जो तार्किक होता है। दूसरा भावनात्मक। इन दोनों का सही प्रयोग ही मानव को मानव बनाता है। जो एक ही हिस्से पर अधिक निर्भर हो जाते हैं वे मनुष्य कहलाने योग्य नहीं रह जाते। तर्क और भावनात्मक हिस्से का संतुलित प्रयोग सही मनुष्य के अनिवार्य है। हॉलीवुड की एक फिल्म है टर्मिनेटर। इसमें एक दृश्य मानव और मशीन के अंतर को बेहद ही सरल तरीके से समझाता है। इस दृश्य में रोते हुए लड़के से मशीन पूछता है “तुम रोते क्यों हो?” लड़का अचानक सोच नहीं पता। उसे लगता है इतनी सी बात यह मशीन क्यों नहीं समझता। उत्तर बिलकुल सरल है। मशीन में तर्क तो है पर भावना गायब है। एक और दृश्य में लड़का मशीन से कहता है की तुम ‘स्माइल’ किया करो। मशीन ‘स्माइल’ को कैसे कॉपी करता है वह दृश्य देखने लायक है।

क्या हम तर्कांध होते जा रहे हैं?

क्या हम तर्क में अंधे होते जा रहे हैं? क्या हम उस टर्मिनेटर मशीन जैसे बनते जा रहे हैं? क्या हम भावनाशून्य होते जा रहे हैं? इन प्रश्रों के उत्तर हमारी पीढ़ी जल्दी ढूंढ ले उसका भला इसी में है। कोरिया की दादियों को अपना पेट भरने के लिए वेश्यावृति का सहारा लेना पड़ रहा है। बीबीसी की एक रिपोर्ट में यह बात सामने आई। कोरिया की एक पूरी पीढ़ी ने अपना सब कुछ अपने बच्चों पर लगा दिया। उनका मानना था की सफल बच्चे सबसे बेहतर पेंशन होते हैं। पर जब बच्चे बड़े हुए तो उनके सामने दूसरी प्राथमिकताएं थीं। बच्चे अपने बूढ़ों की देखभाल नहीं करते। बूढ़ी दादियों के पास वेश्यावृति के अलावा कोई साधन नहीं की वे अपना पेट भर सकें। हाँ, उनके पास ऐसी तकनीकी है कि मात्र एक बटन दबा कर वेश्यावृति की जा सकती है! कमाल की बात है, है न?

अपने पितरों को बिंदास पानी दीजिए। आप मशीन नहीं हैं। आपके अंदर श्रद्धा है। हमारी अगली पीढ़ी तर्कांध मशीन न बने। आपको ऐसा करते देख उसे कुछ तो सीख मिलेगी। वो भी अपने बड़ों के प्रति कुछ तो लगाव रखेगी।

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