ये प्रकृति
ये समंदर की हलचल
ये नदियों की कलकल
कुछ कहना चाहती हैं हम से
ये प्रकृति कुछ कहना चाहती हैं हम से ||
ये समंदर की हलचल
ये नदियों की कलकल
कुछ कहना चाहती हैं हम से
ये प्रकृति कुछ कहना चाहती हैं हम से ||
मोचीराम आधुनिक हिंदी साहित्य में एक मील का पत्थर है। धूमिल जी की यह रचना विद्वता का दम्भ भरने वालों को कभी पची नहीं। पर कविता कोई हाजमोला नहीं जो लोगों को पच जाए। विद्वान उसे बार -बार निगलते हैं पचने का प्रयास करते हैं और उलटी कर देते हैं। आपको यह कविता पची या नहीं अवश्य बताएँ।
जलता कोयला क्या कहे राख से…
मैं हूं इक शोला , तू बस खाक है…
शून्य विरुद्ध अनन्त Read More »
कब बदलेगी सूरत
कब थमेगा मौत का तांडव
कब कोई फरिश्ता आकर कहेगा
बस तुझे करना होगा पश्चाताप तूने किए हैं बहुत सारे पाप